International Research journal of Management Science and Technology

  ISSN 2250 - 1959 (online) ISSN 2348 - 9367 (Print) New DOI : 10.32804/IRJMST

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दिनकर के काव्य में प्रगतिवादी मूल्य

    1 Author(s):  DR NARENDER

Vol -  8, Issue- 5 ,         Page(s) : 68 - 71  (2017 ) DOI : https://doi.org/10.32804/IRJMST

Abstract

साहित्य और समाज परस्पर अन्योन्याश्रित है। साहित्यकार का परिपोशण समाज के द्वारा ही होता है। वह अपनी संवेदनशीलता एवं विशेष दृष्टि के फलस्वरूप समाज को सूक्ष्मता से परखता है और साहित्य के माध्यम से व्यक्त करता है।

1. दिनकर, हुंकार: विपथगा, पृ.73
2. दिनकर, धूप और धुंआ, स्वर्ग के दीपक पृ. 03
3. दिनकर, हुंकार: विपथगा, पृ. 73
4. दिनकर, हुंकार: हाहाकर, पृ.23
5. दिनकर, धूप और धुँआ, इच्छा हरण, पृ.27
6. दिनकर, धूप और धुँआ, जनता और जवाहर, पृ. 51
7. दिनकर, धूप और धुँआ, स्वर्ग के दीपक, पृ. 4
8. दिनकर, धूप और धुँआ, जनता और जवाहर, पृ. 51
9. दिनकर, नीम के पत्ते, रोटी और स्वाधीनता, पृ.5
10. दिनकर, रष्मिरथि, पृ. 78
11. दिनकर, सामधेनी, पृ. 77
12. दिनकर, सामधेनी, पृ 38

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