लोकरंजन व लोकरक्षण विद्या सांग
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Author(s):
DR. SUKRAMWATI DEVI
Vol - 7, Issue- 11 ,
Page(s) : 273 - 278
(2016 )
DOI : https://doi.org/10.32804/IRJMST
Abstract
सांग हरियाणवी संस्कृति के मुँह बोलते चित्र हैं । इनमें पुरुष एक दूसरे का रूप धरण कर मंच पर उपस्थित होते हैं तथा दर्शकों के हृदय को गुदगुदाते रहते हैं । सांग लोक जीवन की धरोहर हैं अथवा यूं कहिए सांग लोक के लिए निर्मित हुए हैं और लोक सांगों के लिए । वास्तव में दोनों एक सिक्के के दो पहलू हैं । सांग की एक लम्बी परम्परा रही है।
- डाॅ. महेन्द्र भानावत, लोकनाट्य: परम्परा और प्रवृत्तियां, पृ. 3
- डाॅ. दशरथ ओझा, हिन्दी नाटक: उद्भव और विकास, पृ. 39
- सांगीत बणदेवी, पृ. 6 लोकनाट्य: परम्परा और प्रवृत्तियां, पृ. 3
- डाॅ. दशरथ ओझा, हिन्दी
- माईराम, सांग उदयभान सन्तोष कुमारी, पृ. 13
- रामपफल सिंह चहल, अशोक कुमार, बाजेभगत व्यक्तित्व एवं कृतित्व, सांग गोपीचन्द, पृ. 83
- डाॅ. पूर्णचन्द शर्मा, पं. लखमीचन्द ग्रन्थावली, सांग राजा हरिश्चन्द्र, पृ. 54
- पं. नत्थूराम, सांग धेबी की बेटी, पृ. 3
- डाॅ. पूर्णचन्द्र शर्मा, पं. लखमीचन्द ग्रन्थावली, सांग सेठ ताराचन्द, पृ. 581
- डाॅ. पूर्णचन्द शर्मा, पं. लखमीचन्द ग्रन्थावली, सांग सेठ ताराचन्द, पृ. 609-610
- पं. रामकिशन व्यास, सांग भीमसेन चन्द्रकौर, पृ. 12
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